मुझे एक बात याद आती है कि एक बार एक व्यक्ति की आंख से धुंधला दिखाई दे रहा था। वह आंखों के डॉक्टर के पास पहुंचा और डॉक्टर को अपनी समस्या बतायी । डॉक्टर ने उसका चश्मा उतारा और अपना चश्मा उसकी आंखों पर लगा दिया। डॉक्टर ने पूंछा कि बताओं अब कैसा दिखता है व्यक्ति ने देखा की डॉक्टर का चश्मा लगाने से उसकी आंखों के सामने और अंधेरा छा गया । उसने डॉक्टर से बोला की मुझे कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखायी दे रहा है, इस बात को सुनकर डॉक्टर भड़क उठा कि क्या बात करते हो यह चश्मा तो मैं इतने सालों से लगा रहा हूं और मुझे साफ दिखायी देता है और तुम कहते हो की तुम्हें कुछ दिखायी नहीं दे रहा यह कैसे हो सकता है।अब आप तो गये थे अपनी परेशानी का हल निकालने डॉक्टर के पास और डॉक्टर ने आपकी परेशानी और बढ़ा दी। ऐसे में यदि भविष्य में आपको कोई परेशानी होती है तो क्या आप फिर उस डॉक्टर के पास जाना पसंद करेंगे। मुझे लगता है कभी नहीं।
जीवन में अक्सर ऐसा होता है कि हम दुसरों की बातों को कभी सुनना नहीं चाहते और यदि वह हमारे पास आता भी है तो हम उसपर अपने नजरिए का चश्मा लगाने की कोशिश करने लगते है। यह गलत है। जब हमारे बच्चे भी हमसे किसी समस्या पर चर्चा करना चाहते है तो हम उनके शब्दों को सुनने की बजाय जवाब देने और अपनी आत्मकथा उन पर लादने की कोशिश करते है । जिससे बच्चा जो मूल समस्या आपके सामने रखना चाहता है वह आपके नजरिए के कारण वे आपसे कह नहीं पाता ।
हमें अपने नजरिए को बदला चाहिए और बोलने से ज्यादा सुनने की आदत हमें डालना चाहिए । हम बात को सुनने और उसे समझे फिर उसका जवाब दे तो आप देखेंगे की उसके परिणाम सकारात्मक निकलेंगे।यह आदत हमें अपने बच्चों में अभी से डालना चाहिए की वे इस बात को समझे की जितना पढ़ना- लिखाना और बोलना जरूरी है उससे भी ज्यादा जरूरी है सुनना । बातों को सुनना और समझना।जिससे आगे आने वाले समय में वे हर बात को समझे और उसके बाद जवाब दे ।फिर मुझे नहीं लगता की किसी माता पिता को यह कहना पड़े कि मेरा बेटा मेरी बातों को सुनना ही नहीं चाहता।
अच्छी विचारणीय पोस्ट...सुनना भी एक कला है.
ReplyDeleteक्या बात है। सही कहा आपने। सुनना जरुरी है।
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