Monday, July 19, 2010

कल्‍पनाओं से पैदा अपरिचित घातक

कई बार हम किसी घटना को देखकर उत्‍तेजित हो जाते है और हम उसे रोक नहीं पाने के कारण हमारे मस्‍तिक में उस घटना का चिंतन चलता रहता है। कुछ लोग होते है जो घटनाओं को कुछ समय बाद भूल जाया करते है। कुछ लोगों के दिमाग से घटना हटती नहीं है और वे रोज उस तरह की घटना का चिंतन करते है। उससे रोकने के लिए अपनी कल्‍पनाओं के सहारे उस विलेन को तरह तरह से मारते रहते है। इस तरह अपनी कल्‍पनाओं के सहारे विलेन को रोज तरह तरह से मारने से कभी-कभी हमारे मस्‍तिक में एक ऐसा किरदार पैदा हो जाता है जो उस तरह की घटनाओं को देखकर अपने आप उत्‍तेजित होने लगता है। हमारे मूलस्‍वरूप हो इस बात का पता ही नहीं चल पाता की हमारा मस्‍तिक कब उत्‍तेजित हुआ और कब शांत। इस किरदार को हम अपरिचित कह सकते है। ऐसा सिर्फ घटनाओं को देखकर नहीं बल्कि हम किसी से प्रेम करें या किसी चीज को पाने की इच्‍छा या इस तरह की कई बातों पर भी लागू होती है। कुल मिलाकर हम यह कह सकते है कि जो कल्‍पनाएं पूरी नहीं होती और हम उसमें लगातार गुथे रहते है।जिससे एक अलग किरादार हमारे म‍स्‍तिक में जन्‍म लेता है। वह फिर अपने तरह से एक अलग भूमिका में काम करने लगता है।
      मैं आपको कोई काल्‍पनिक कथा नहीं सुना रहा हूं बल्कि मैं स्‍वयं का उदाहरण देकर अपनी बात स्‍पष्‍ट करना चाहता हूं। बचपन में मुझे एक ऐसे दोस्‍त की कल्‍पना थी जिसको यदि मेरे गुरूजी सजा दे तो मैं उस दोस्‍त की सजा भी खुद अपने ऊपर ले लू। उसकी सारी गल्तियां अपनी बता कर उसको शेफ रखूं। इस तरह की कल्‍पना के साथ मैं अपने दोस्‍त की तलाश करने लगा। मुझे एक दोस्‍त मिला जिसको मैं अपनी कल्‍पनाओं के अनुरूप चाहने लगा ।  कुछ दिनों बाद उसने स्‍कूल छोड़ दिया और मैं फिर अकेला हो गया। वह दोस्‍त तो चला गया पर मेरे अंदर अपने दोस्‍त के प्रति कल्‍पानाएं बढ़ती ही जा रहीं थी। जिससे मुझे पता नहीं चला कि कब मेरे मस्तिक में एक किरदार ने जन्‍म ले लिया। उस किरदार के कारण जब भी मुझे कोई दोस्‍त मिलता तो मेरा मूल दिमाग शून्‍य हो जाता और उस अपरिचित किरादार के इशारों पर मेरा दिमाग चलने लगा। वह अपरिचित एक ऐसा दोस्‍त तलाशने लगा जो कभी मुझसे दूर ही ना जाए । उसने ऐसा किया भी,जब मुझे एक दोस्‍त मिला तो उसने उसे 14 साल अपने घर से दूर रखा।मेरी अपनी कल्‍पना से जन्‍में किरदार ने मेरे और मेरे दोस्‍त के दिमाग पर इस तरह का कब्‍जा जमाया की वह सब कुछ भूल गया । जो मेरे माध्‍यम से मेरा अपरिचित किरदार कहता वह करता जाता।14 साल बाद एक ऐसी हवा चली कि मेरे किरदार  और मेरे दोस्‍त ने जो कल्‍पनाओं के महल खड़े किए वे सब गिरने लगे तो मेरे दिमाग का वो अपरिचित किरदार बैचेन होने लगा । मेरे दोस्‍त को मुझसे दूर होना पड़ा। तब कहीं मेरा दिमाग मूल चेतना में लौटा। मैने तब अपने पीछे जो कुछ हुआ उसे सोचा हो मुझे इतना आश्‍चर्य हुआ की मैं बता नहीं सकता । मैने स्‍वयं उस अपरिचित को महसूस किया। उसने अपने दोस्‍त को पाने के लिए वे वे कारनामें किए जो मैं सामान्‍य रूप से कभी नहीं कर सकता था। पर उस समय में उसके आवेग में था।
मेरा कहने का आशय है कि हर व्‍यक्ति के अंदर अपरिचित किरदार है।वे आदमी के अधूरी कल्‍पनाओं के सहारे जीवित हो जाते है। यदि कल्‍पना अच्‍छी है तब तो बात ठीक है । पर यदि कल्‍पना ठीक नहीं है तो यह किरादार विनाश भी करा देता है। कई दफा हम सुनते है कि फंला ने ऐसा कर दिया यकिन नहीं होता वह तो बड़ा सीधा था। यह सब इस अपरिचित के कारण ही होता है।
हमें इस तरह की आदतों में सुधार अपने आप में और अब अपने बच्‍चों में भी करना चाहिए । हमें यह आदत डालनी चाहिए की कोई भी चीज जिससे हम पाना चाहते है यदि वह हमें नहीं मिल पाती है तो हमें अनावश्‍यक उसके बारे में एकांत में कल्‍पना के ताने बाने नहीं बुनना चाहिए। अक्‍सर ऐसा होता है कि हमारा किसी से बैर हो जाता है और हम उसका कुछ नहीं कर पाते तो हम रात में सोते समय अक्‍सर कल्‍पनाओं के सहारे उसका बुरा करते रहते है । यह सब बहुत घातक होता है। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए । पहली बात हमें यह समझ लेना चाहिए की हमारा कोई अहित नहीं कर सकता ना ही हमें कोई जलील कर सकता है जब तक की हम स्‍वयं जलील होना नहीं चाहे। किसी की कल्‍पनाओं के सहारे हत्‍या करने से उसक कुछ नहीं होता बल्कि हमारे स्‍वस्‍थ विचार होते है उनकी जरूर हत्‍या हो जाती है जो बहुत हानिकारक होती है। दिमाग से नकारात्‍मक विचारों को निकालों । अच्‍छी कल्‍पनाओं को जमा करों और अपने अंदर उस अपरिचित को जन्‍म ना होने दो।

Saturday, July 17, 2010

निश्चित ही विनाश होगा।

हमें समस्या के विषय में नहीं बल्कि समाधान के विषय में सोचना चाहिए। जो हो गया उसका चिंतन तो हमें छोड़ ही देना चाहिए। जो हो गया है उसमें आप कुछ भी नहीं कर सकते पर अब जो हो सकता है उसमें तो आप जरूर कुछ ना कुछ करके होने वाले परिणाम को प्रभावित कर सकते हो। होता यह है कि जब हम किसी मुश्किल में फंस जाते है तो हम समाधान की बात तो सोचते ही नहीं है। बल्कि हम उस समस्या के बारे में ही चिंतन किए जाते है। ऐसा कहा भी जाता है कि भय का राक्षस केवल भय को खा कर ही बड़ा हो ता है और डर से ही डर पैदा होता है । हम समस्या से समस्याओं को जन्म देते है। जीवन में आई समस्याओं से तनिक भी विचलित होने की आवश्य‍कता नहीं है। आप समस्यांओं के सामने घबराते है तो निश्चित ही आपका विनाश होगा।


मुझे एक घटना याद है । आज से कुछ समय पहले मैं एक ऐसी मुश्किल में फंस गया था कि जिससे जितना भी निकलने की कोशिश करता मेरा मन उसी समस्या के पीछे भागने से नहीं रूकता । मैं दिन में कई बार कोशिश करता की मेरा मन उस समस्या के पीछे ना भागे पर वह मानता ही नहीं । मुझे लगभग 15 दिन हो गए । मेरा किसी काम में मन ही नहीं लगता था। मेरे साथ इन 15 दिनों में इतना कुछ घटा की मैने ने जीवन के लिए कल्प ना की जितनी इमारतें खड़ी की थी वे मेरे एक एक करके सब ढह गई।मैं उस समय अपने आप को इतना विवश महसूस कर रहा था कि मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया। कभी-कभी ऐसा होता है कि आप कितने भी सझम हो पर कुछ मामलों में आप इतने विवश हो जाते हो कि चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते । मुझे मेरी असफलता ने झकझोर दिया। मुझे लगा की मैं क्योंी नहीं अपनी मुठ्ठी बंद कर पाया ।मेरे सारे सुख मुठ्ठी से रेत की तरह बह गए। इस तरह के अवसाद में मैने अपने आपको पाया। एक दिन में इन्हीं विचारों में खोया बैठा था । तभी मेरा बेटा घर बनाने के अलग-अलग रंग के टुकड़ेनुमा खिलौने से मेरे पास आकर घर बनाने लगा। मैं उसे बहुत गौर से देख रहा था तो मैने देखा की दो साल का मेरा बेटा उन टुकड़ों को जोड़ने मे लगा है। जो टुकड़ा उससे जुड़ा उसको जोड़कर दूसरे से मिलाने लगा और जो नहीं जुड़ रहा था उसमें अपना दिमाग खर्च ना कर एक तरफ रखता जा रहा था। शायद वह यह सोच रहा था कि पहले जो टुकड़े आपस में जुड़ रहे है उन्हें तो जोड़ा जाए बाकी जो समस्या पैदा कर रहे है उन्हें बाद में देखेंगे। उसके इस तरह के वर्णीकरण ने मेरी आंखे खोल दी। मुझे लगा सच में यह कितना आसान है कि जो जुड़ रहा है उसे तो जोड़ो और जो समस्याण पैदा करते है उन्हे एक तरफ रख दो बाद में देखेंगे।मुझे उससे एक नई प्रेरणा मिली। और मैने तय किया कि जीवन में भी इसी तरह का वर्णीकरण होने से कई मुश्किलों पर विजय आसानी से पाई जा सकती है।

समस्याएं तो हमेशा सामने आती है उससे घबराने की जरूरत नहीं है । सिर्फ जरूरत है उसका वर्गीकरण करने की । उसको टु‍कड़ों में बाटने की जिससे जो चीज आसानी से हल हो जाए से पहले करने से मन को शांति मिलती है और फिर विश्वाकस पैदा होता है कि हम हल कर सकते है । इसी तरह मैने अपनी मुश्किलों को क्लासिफाइड किया और उस बच्चे की तरह हर समस्या के सकारात्म्क पहलूओं को जोड़ा। आप आश्चयर्य मानेंगे कि उन सकारात्मक पहलूओं को जोड़ने के बाद जो समस्या का मूल स्वरूप था वह बदल गया और मुझे हर तरह से हल नजर आने लगा । मेरे अंदर इतना आत्म विश्वास पैदा हुआ कि मुझे लगा की मैं इन मुश्किलों से आसानी से निकल सकता हूं।

मेरा कहने का आशय यह है कि समस्याओं से घबराने की जरूरत नहीं बल्कि उसका सामना करने की जरूरत है । यदि हम समस्याओं का सामना करें तो आप देखेंगे की उसके हल उसी से निकल आते है।हमें समस्या के बारे में ना सोच कर समाधान के बारे में सोचना चाहिए।

Tuesday, July 13, 2010

समस्‍या से ही समाधान

 हमें समस्‍या के विषय में नहीं बल्कि समाधान के विषय में सोचना चाहिए। जो हो गया उसका चिंतन तो हमें छोड़ ही देना चाहिए। जो हो गया है उसमें आप कुछ भी नहीं कर सकते पर अब जो हो सकता है उसमें तो आप जरूर कुछ ना कुछ करके होने वाले परिणाम को प्रभावित कर सकते हो। होता यह है कि जब हम किसी मुश्‍किल में फंस जाते है तो हम समाधान की बात तो सोचते ही नहीं है। बल्कि हम उस समस्‍या के बारे में ही चिंतन किए जाते है। ऐसा कहा भी जाता है कि भय का राक्षस केवल भय को खा कर ही बड़ा हो ता है और डर से ही डर पैदा होता है । हम समस्‍या से समस्‍याओं को जन्‍म देते है। जीवन में आई समस्‍याओं से तनिक भी विचलित होने की आवश्‍यकता नहीं है। आप समस्‍याओं के सामने घबराते है तो निश्‍चित ही आपका विनाश होगा।
मुझे एक घटना याद है । आज से कुछ समय पहले मैं एक ऐसी मुश्किल में फंस गया था कि जिससे जितना भी निकलने की कोशिश करता मेरा मन उसी समस्‍या के पीछे भागने से नहीं रूकता । मैं दिन में कई बार कोशिश करता की मेरा मन उस समस्‍या के पीछे ना भागे पर वह मानता ही नहीं । मुझे लगभग 15 दिन हो गए । मेरा किसी काम में मन ही नहीं लगता था। मेरे साथ इन 15 दिनों में इतना कुछ घटा की मैने ने जीवन के लिए कल्‍पना की जितनी इमारतें खड़ी की थी वे मेरे एक एक करके सब ढह गई।मैं उस समय अपने आप को इतना विवश महसूस कर रहा था कि मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया। कभी-कभी ऐसा होता है कि आप कितने भी सझम हो पर कुछ मामलों में आप इतने विवश हो जाते हो कि चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते । मुझे मेरी असफलता ने झकझोर दिया। मुझे लगा की मैं क्‍यों नहीं अपनी मुठ्ठी बंद कर पाया ।मेरे सारे सुख मुठ्ठी से रेत की तरह बह गए। इस तरह के अवसाद में मैने अपने आपको पाया। एक दिन में इन्‍हीं विचारों में खोया बैठा था । तभी मेरा बेटा घर बनाने के अलग-अलग रंग के टुकड़ेनुमा खिलौने से मेरे पास आकर घर बनाने लगा। मैं उसे बहुत गौर से देख रहा था तो मैने देखा की दो साल का मेरा बेटा उन टुकड़ों को जोड़ने मे लगा है। जो टुकड़ा उससे जुड़ा उसको जोड़कर दूसरे से मिलाने लगा और जो नहीं जुड़ रहा था उसमें अपना दिमाग खर्च ना कर एक तरफ रखता जा रहा था। शायद वह यह सोच रहा था कि पहले जो टुकड़े आपस में जुड़ रहे है उन्‍हें तो जोड़ा जाए बाकी जो समस्‍या पैदा कर रहे है उन्‍हें बाद में देखेंगे। उसके इस तरह के वर्णीकरण ने मेरी आंखे खोल दी। मुझे लगा सच में यह कितना आसान है कि जो जुड़ रहा है उसे तो जोड़ो और जो समस्‍या पैदा करते है उन्‍हे एक तरफ रख दो बाद में देखेंगे।मुझे उससे एक नई प्रेरणा मिली। और मैने तय किया कि जीवन में भी इसी तरह का वर्णीकरण होने से कई मुश्किलों पर विजय आसानी से पाई जा सकती है।
समस्‍याएं तो हमेशा सामने आती है उससे घबराने की जरूरत नहीं है । सिर्फ जरूरत है उसका वर्गीकरण करने की । उसको टु‍कड़ों में बाटने की जिससे जो चीज आसानी से हल हो जाए से पहले करने से मन को शांति मिलती है और फिर विश्‍वास पैदा होता है कि हम हल कर सकते है । इसी तरह मैने अपनी मुश्किलों को क्‍लासिफाइड किया और उस बच्‍चे की तरह हर समस्‍या के सकारात्‍मक पहलूओं को जोड़ा। आप आश्‍चर्य मानेंगे कि उन सकारात्‍मक पहलूओं को जोड़ने के बाद जो समस्‍या का मूल स्‍वरूप था वह बदल गया और मुझे हर तरह से हल नजर आने लगा । मेरे अंदर इतना आत्‍मविश्‍वास पैदा हुआ कि मुझे लगा की मैं इन मुश्किलों से आसानी से निकल सकता हूं।
 मेरा कहने का आशय यह है कि समस्‍याओं से घबराने की जरूरत नहीं बल्कि उसका सामना करने की जरूरत है । यदि हम समस्‍याओं का सामना करें तो आप देखेंगे की उसके हल उसी से निकल आते है।हमें समस्‍या के बारे में ना सोच कर समाधान के बारे में सोचना चाहिए।

Wednesday, June 30, 2010

जीवन का संघर्ष

                          जीवन में संघर्ष जीत और हार के लिए नहीं होता। यह आदमी का सबसे बड़ा भ्रम होता है जो वह यह कहता है कि उसने संघर्ष किया फिर भी वह हार गया। हार कभी संघर्ष से प्राप्‍त ही नहीं हो सकी । संघर्ष से तो केवल प्राप्‍त हो सकती है जीत। संघर्ष जीत के लिए ही किया जाता है। हार तो आपके पास हमेशा है उसको पाने के लिए आपको किसी तरह का संघर्ष नहीं करना । आप संघर्ष नहीं करोगे तो हार अपने आप ही आपका दामन थाम लेगी।
व्‍यक्ति को धैयवान होने की जरूरत है किसी भी चीज को पाने के लिए आपको संघर्ष तो करना ही होगा ।
                         जब हम संघर्ष करते है तो हो सकता है की हमें अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं मिलें। पर इससे अपने आपको मायूस करने की आवश्‍यकता नहीं है ऐसा होता ही रहता है ।इस मामले में मेरा मानना है की जब हम किसी लक्ष्‍य को लेकर  संघर्ष शुरू करते है तो हमारी लिखित परीक्षा शुरू हो जाती है जिसमें हमें कई मुश्किलों का सही जवाब देना होता है हमारी लगन और धैय से हम अपने लक्ष्‍य के लिए आगे बढ़ते है । लेकिन कई बार पूरी लगन से मेहनत करने के बाद हमें परिणाम नहीं मिलता है तो इस स्थिती में हमें मायूसी नहीं होना चाहिए। जब इस तरह की स्थिती आती है तो हमें जरूर लगता है की हम असफल हो गये है। मेहनत का परिणाम नहीं मिलता और हम अपने आगे के प्रयासों को रोककर असफलता को थाम लेते है। उस विषय से अपना मन हटा लेते है। हमें जरूर लगता है की हम असफल हो गए पर वास्‍तव में यह वक्‍त हमारा लिखित परीक्षा पास करने के बाद साक्षात्‍कार का होता है। इस साक्षात्‍कार में यह तय किया जाता है की आपके पास कितना धैय है,कितना विवेक है और आप आने वाली इन विषम परिस्थितियों में अपना व्‍यवहार किस तरह का रखते हैं। होता यह है की हममें से अधिकांश लोग इस साक्षात्‍कार में बैठते ही नहीं और असफलता का दामन थाम कर विषय से भटक जाते है और अपना रोना रोते नजर आते है।
                     एक बहुत अच्‍छी बात है कि सिद्धि यदि एक मिनिट में मिलती तो हम व्‍यक्ति सिद्धि को प्राप्‍त कर लेता। ऐसा नहीं होता है जो संघर्ष करता है उसके पास सिद्धि आती है। यह संघर्ष भी उस हद तक किया जाता है की संघर्ष आप से सहम जाए।
                    मेरे साथ हाल में एक वाक्‍या हुआ । मेरे मित्र ने जीवन के एक लक्ष्‍य को पाने के लिए बहुत ईमानदारी से काफी लंबा संघर्ष किया। हर बात उसके के पक्ष में होती नजर आ रहीं थी। वह अपने लक्ष्‍य के इतने करीब था की जैसे बहुत कीमती वस्‍तु जिसको हम वर्षो से पाने के लिए प्रयासरत है और उसको को उठाने के लिए हाथ बढ़ने का समय आया तो एक विश्‍वास पात्र ने उसे धक्‍का दे दिया और लक्ष्‍य हाथ से आते-आते ही निकल गया। आप इस स्थिती को समझ सकते है उस समय उसकी हालत क्‍या हो सकती है। मेरा मित्र जिसने इतना संघर्ष किया  उसका हाल तो बेहाल था ।मैं उसकी स्थिती को अच्‍छी तरह से समझ रहा था  ऐसी परिस्थिती में अक्‍सर लोग भटक जाते है।
             मैं और मेरा मित्र एकांत कमरें में चिंतन कर रहें थे कि मेरी आखों के सामने चीटियों का झुंड दिखायी जिसमें से कुछ चीटियां अन्‍न के छोटे-छोटे से टुकड़े के साथ सामूहिक रूप से दरबाजे के सहारे ऊपर चढ़ रहीं थी।कई बार ऐसा हुआ की वे अपने लक्ष्‍य के करीब पहुंचने पर भी गिर जाती थी । मैने देखा की वे हताश नहीं होती थी और फिर सामूहिक प्रयास करने लगती थी एक बार दो बार और तीन बार गिरने के बाद वे चौथी बार में अपने प्रयास में सफल हुई। इस दृष्‍य को देखकर मेरे अंदर एक अजीब सी ऊर्जा का संचार होने लगा । मुझे लगा असफल होने से सब कुछ खत्‍म नहीं होता ।हम फिर से कोशिश करेंगे और जब तक सफल नहीं हो जाते तब तक कोशिश करते रहेंगे। मैने अपने दोस्‍त को समझाया और आपको इस बात को जान कर आश्‍चर्य होगा की जब हम शाम को एक मंदिर में संघर्ष को फिर से शुरू करने के लिए चिंतन कर रहे थे तब हमने सारे पक्षों को अपने सामने रखा तो हम लोग उस समय चकित हो गये जब हमें यह लगा कि हमारे साथ जो कुछ हुआ पर हमारे पक्ष में ही था। यदि यह असफलता हमें नही मिलती तो शायद हम अपने लक्ष्‍य को कभी नहीं पा सकते थे। जिसको हम असफलता मानकर अवसाद में जा रहे थे असल में वह स्थि‍ती ही हमारी सफलता की चाबी थी। मैंने अपने मित्र से कहा की हमने लक्ष्‍य को पाने वाली लिखित परीक्षा पास कर ली और अब इस असफलता के साथ हम सीधे साक्षात्‍कार में पहुंच गये। हमें इस बात से इतना आश्‍चर्य हुआ की लक्ष्‍य प्राप्ति के दौरान होने वाली असफलता हमारे लक्ष्‍य प्राप्ति का दरबाजा है ।
                  मुझे जो एक नई अनुभूति स्‍वयं हुई उससे मैं आपसे शेयर करना
      चाहता था। मुझे फिर ऐसा लगा की अक्‍सर ऐसा हो जाता है की असफलता
      के बाद हम उस  विषय के बारे में सोचना छोड़ देते है। पर ऐसा नहीं होना
      चाहिए हमें चिन्‍तन करना चाहिए की क्‍या वजह रही की हम असफल हुए और
      हमेशा सकारात्‍मक नजरिए से की ऐसा होने पर मुझे कितना फायदा हुआ तो
      आप  देखेगें की आपको हर परिस्थिति अपने पक्ष में लगेगी और आप अपने
      लक्ष्‍य को जरूर प्राप्‍त करेंगे। 

Sunday, June 20, 2010

हार नहीं केवल होती है जीत

            जीवन में संघर्ष जीत और हार के लिए नहीं होता। यह आदमी का सबसे बड़ा भ्रम होता है जो वह यह कहता है कि उसने संघर्ष किया फिर भी वह हार गया। हार कभी संघर्ष से प्राप्‍त ही नहीं हो सकी। संघर्ष से तो केवल प्राप्‍त हो सकती है जीत। संघर्ष जीत के लिए ही किया जाता है। हार तो आपके पास हमेशा है उसको पाने के लिए आपको किसी तरह का संघर्ष नहीं करना । आप संघर्ष नहीं करोगे तो हार अपने आप ही आपका दामन थाम लेगी। व्‍यक्ति को धैर्यवान होने की जरूरत है किसी भी चीज को पाने के लिए आपको संघर्ष तो करना ही होगा ।


             जब हम संघर्ष करते है तो हो सकता है की हमें अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं मिलें। पर इससे अपने आपको मायूस करने की आवश्‍यकता नहीं है ऐसा होता ही रहता है ।इस मामले में मेरा मानना है की जब हम किसी लक्ष्‍य को लेकर  संघर्ष शुरू करते है तो हमारी लिखित परीक्षा शुरू हो जाती है जिसमें हमें कई मुश्किलों का सही जवाब देना होता है हमारी लगन और धैय से हम अपने लक्ष्‍य के लिए आगे बढ़ते है । लेकिन कई बार पूरी लगन से मेहनत करने के बाद हमें परिणाम नहीं मिलता है तो इस स्थिती में हमें मायूसी नहीं होना चाहिए। जब इस तरह की स्थिती आती है तो हमें जरूर लगता है की हम असफल हो गये है। मेहनत का परिणाम नहीं मिलता और हम अपने आगे के प्रयासों को रोककर असफलता को थाम लेते है। उस विषय से अपना मन हटा लेते है। हमें जरूर लगता है की हम असफल हो गए पर वास्‍तव में यह वक्‍त हमारा लिखित परीक्षा पास करने के बाद साक्षात्‍कार का होता है। इस साक्षात्‍कार में यह तय किया जाता है की आपके पास कितना धैय है,कितना विवेक है और आप आने वाली इन विषम परिस्थितियों में अपना व्‍यवहार किस तरह का रखते हैं। होता यह है की हममें से अधिकांश लोग इस साक्षात्‍कार में बैठते ही नहीं और असफलता का दामन थाम कर विषय से भटक जाते है और अपना रोना रोते नजर आते है।
                     एक बहुत अच्‍छी बात है कि सिद्धि यदि एक मिनिट में मिलती तो हम व्‍यक्ति सिद्धि को प्राप्‍त कर लेता। ऐसा नहीं होता है जो संघर्ष करता है उसके पास सिद्धि आती है। यह संघर्ष भी उस हद तक किया जाता है की संघर्ष आप से सहम जाए।
                    मेरे साथ हाल में एक वाक्‍या हुआ । मेरे मित्र ने जीवन के एक लक्ष्‍य को पाने के लिए बहुत ईमानदारी से काफी लंबा संघर्ष किया। हर बात उसके के पक्ष में होती नजर आ रहीं थी। वह अपने लक्ष्‍य के इतने करीब था की जैसे बहुत कीमती वस्‍तु जिसको हम वर्षो से पाने के लिए प्रयासरत है और उसको को उठाने के लिए हाथ बढ़ने का समय आया तो एक विश्‍वास पात्र ने उसे धक्‍का दे दिया और लक्ष्‍य हाथ से आते-आते ही निकल गया। आप इस स्थिती को समझ सकते है उस समय उसकी हालत क्‍या हो सकती है। मेरा मित्र जिसने इतना संघर्ष किया  उसका हाल तो बेहाल था ।मैं उसकी स्थिती को अच्‍छी तरह से समझ रहा था  ऐसी परिस्थिती में अक्‍सर लोग भटक जाते है।
             मैं और मेरा मित्र एकांत कमरें में चिंतन कर रहें थे कि मेरी आखों के सामने चीटियों का झुंड दिखायी जिसमें से कुछ चीटियां अन्‍न के छोटे-छोटे से टुकड़े के साथ सामूहिक रूप से दरबाजे के सहारे ऊपर चढ़ रहीं थी।कई बार ऐसा हुआ की वे अपने लक्ष्‍य के करीब पहुंचने पर भी गिर जाती थी । मैने देखा की वे हताश नहीं होती थी और फिर सामूहिक प्रयास करने लगती थी एक बार दो बार और तीन बार गिरने के बाद वे चौथी बार में अपने प्रयास में सफल हुई। इस दृष्‍य को देखकर मेरे अंदर एक अजीब सी ऊर्जा का संचार होने लगा । मुझे लगा असफल होने से सब कुछ खत्‍म नहीं होता ।हम फिर से कोशिश करेंगे और जब तक सफल नहीं हो जाते तब तक कोशिश करते रहेंगे। मैने अपने दोस्‍त को समझाया और आपको इस बात को जान कर आश्‍चर्य होगा की जब हम शाम को एक मंदिर में संघर्ष को फिर से शुरू करने के लिए चिंतन कर रहे थे तब हमने सारे पक्षों को अपने सामने रखा तो हम लोग उस समय चकित हो गये जब हमें यह लगा कि हमारे साथ जो कुछ हुआ पर हमारे पक्ष में ही था। यदि यह असफलता हमें नही मिलती तो शायद हम अपने लक्ष्‍य को कभी नहीं पा सकते थे। जिसको हम असफलता मानकर अवसाद में जा रहे थे असल में वह स्थि‍ती ही हमारी सफलता की चाबी थी। मैंने अपने मित्र से कहा की हमने लक्ष्‍य को पाने वाली लिखित परीक्षा पास कर ली और अब इस असफलता के साथ हम सीधे साक्षात्‍कार में पहुंच गये। हमें इस बात से इतना आश्‍चर्य हुआ की लक्ष्‍य प्राप्ति के दौरान होने वाली असफलता हमारे लक्ष्‍य प्राप्ति का दरबाजा है ।
                  मुझे जो एक नई अनुभूति स्‍वयं हुई उससे मैं आपसे शेयर करना
      चाहता था। मुझे फिर ऐसा लगा की अक्‍सर ऐसा हो जाता है की असफलता
      के बाद हम उस  विषय के बारे में सोचना छोड़ देते है। पर ऐसा नहीं होना
      चाहिए हमें चिन्‍तन करना चाहिए की क्‍या वजह रही की हम असफल हुए और
      हमेशा सकारात्‍मक नजरिए से की ऐसा होने पर मुझे कितना फायदा हुआ तो
      आप  देखेगें की आपको हर परिस्थिति अपने पक्ष में लगेगी और आप अपने
      लक्ष्‍य को जरूर प्राप्‍त करेंगे। 

Friday, June 18, 2010

जीवन के संघर्ष में केवल होती है जीत और जीत

                          जीवन में संघर्ष जीत और हार के लिए नहीं होता। यह आदमी का सबसे बड़ा भ्रम होता है जो वह यह कहता है कि उसने संघर्ष किया फिर भी वह हार गया। हार कभी संघर्ष से प्राप्‍त ही नहीं हो सकी । संघर्ष से तो केवल प्राप्‍त हो सकती है जीत। संघर्ष जीत के लिए ही किया जाता है। हार तो आपके पास हमेशा है उसको पाने के लिए आपको किसी तरह का संघर्ष नहीं करना । आप संघर्ष नहीं करोगे तो हार अपने आप ही आपका दामन थाम लेगी।
व्‍यक्ति को धैयवान होने की जरूरत है किसी भी चीज को पाने के लिए आपको संघर्ष तो करना ही होगा ।
                         जब हम संघर्ष करते है तो हो सकता है की हमें अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं मिलें। पर इससे अपने आपको मायूस करने की आवश्‍यकता नहीं है ऐसा होता ही रहता है ।इस मामले में मेरा मानना है की जब हम किसी लक्ष्‍य को लेकर  संघर्ष शुरू करते है तो हमारी लिखित परीक्षा शुरू हो जाती है जिसमें हमें कई मुश्किलों का सही जवाब देना होता है हमारी लगन और धैय से हम अपने लक्ष्‍य के लिए आगे बढ़ते है । लेकिन कई बार पूरी लगन से मेहनत करने के बाद हमें परिणाम नहीं मिलता है तो इस स्थिती में हमें मायूसी नहीं होना चाहिए। जब इस तरह की स्थिती आती है तो हमें जरूर लगता है की हम असफल हो गये है। मेहनत का परिणाम नहीं मिलता और हम अपने आगे के प्रयासों को रोककर असफलता को थाम लेते है। उस विषय से अपना मन हटा लेते है। हमें जरूर लगता है की हम असफल हो गए पर वास्‍तव में यह वक्‍त हमारा लिखित परीक्षा पास करने के बाद साक्षात्‍कार का होता है। इस साक्षात्‍कार में यह तय किया जाता है की आपके पास कितना धैय है,कितना विवेक है और आप आने वाली इन विषम परिस्थितियों में अपना व्‍यवहार किस तरह का रखते हैं। होता यह है की हममें से अधिकांश लोग इस साक्षात्‍कार में बैठते ही नहीं और असफलता का दामन थाम कर विषय से भटक जाते है और अपना रोना रोते नजर आते है।
                     एक बहुत अच्‍छी बात है कि सिद्धि यदि एक मिनिट में मिलती तो हम व्‍यक्ति सिद्धि को प्राप्‍त कर लेता। ऐसा नहीं होता है जो संघर्ष करता है उसके पास सिद्धि आती है। यह संघर्ष भी उस हद तक किया जाता है की संघर्ष आप से सहम जाए।
                    मेरे साथ हाल में एक वाक्‍या हुआ । मेरे मित्र ने जीवन के एक लक्ष्‍य को पाने के लिए बहुत ईमानदारी से काफी लंबा संघर्ष किया। हर बात उसके के पक्ष में होती नजर आ रहीं थी। वह अपने लक्ष्‍य के इतने करीब था की जैसे बहुत कीमती वस्‍तु जिसको हम वर्षो से पाने के लिए प्रयासरत है और उसको को उठाने के लिए हाथ बढ़ने का समय आया तो एक विश्‍वास पात्र ने उसे धक्‍का दे दिया और लक्ष्‍य हाथ से आते-आते ही निकल गया। आप इस स्थिती को समझ सकते है उस समय उसकी हालत क्‍या हो सकती है। मेरा मित्र जिसने इतना संघर्ष किया  उसका हाल तो बेहाल था ।मैं उसकी स्थिती को अच्‍छी तरह से समझ रहा था  ऐसी परिस्थिती में अक्‍सर लोग भटक जाते है।
             मैं और मेरा मित्र एकांत कमरें में चिंतन कर रहें थे कि मेरी आखों के सामने चीटियों का झुंड दिखायी जिसमें से कुछ चीटियां अन्‍न के छोटे-छोटे से टुकड़े के साथ सामूहिक रूप से दरबाजे के सहारे ऊपर चढ़ रहीं थी।कई बार ऐसा हुआ की वे अपने लक्ष्‍य के करीब पहुंचने पर भी गिर जाती थी । मैने देखा की वे हताश नहीं होती थी और फिर सामूहिक प्रयास करने लगती थी एक बार दो बार और तीन बार गिरने के बाद वे चौथी बार में अपने प्रयास में सफल हुई। इस दृष्‍य को देखकर मेरे अंदर एक अजीब सी ऊर्जा का संचार होने लगा । मुझे लगा असफल होने से सब कुछ खत्‍म नहीं होता ।हम फिर से कोशिश करेंगे और जब तक सफल नहीं हो जाते तब तक कोशिश करते रहेंगे। मैने अपने दोस्‍त को समझाया और आपको इस बात को जान कर आश्‍चर्य होगा की जब हम शाम को एक मंदिर में संघर्ष को फिर से शुरू करने के लिए चिंतन कर रहे थे तब हमने सारे पक्षों को अपने सामने रखा तो हम लोग उस समय चकित हो गये जब हमें यह लगा कि हमारे साथ जो कुछ हुआ पर हमारे पक्ष में ही था। यदि यह असफलता हमें नही मिलती तो शायद हम अपने लक्ष्‍य को कभी नहीं पा सकते थे। जिसको हम असफलता मानकर अवसाद में जा रहे थे असल में वह स्थि‍ती ही हमारी सफलता की चाबी थी। मैंने अपने मित्र से कहा की हमने लक्ष्‍य को पाने वाली लिखित परीक्षा पास कर ली और अब इस असफलता के साथ हम सीधे साक्षात्‍कार में पहुंच गये। हमें इस बात से इतना आश्‍चर्य हुआ की लक्ष्‍य प्राप्ति के दौरान होने वाली असफलता हमारे लक्ष्‍य प्राप्ति का दरबाजा है ।
                  मुझे जो एक नई अनुभूति स्‍वयं हुई उससे मैं आपसे शेयर करना
      चाहता था। मुझे फिर ऐसा लगा की अक्‍सर ऐसा हो जाता है की असफलता
      के बाद हम उस  विषय के बारे में सोचना छोड़ देते है। पर ऐसा नहीं होना
      चाहिए हमें चिन्‍तन करना चाहिए की क्‍या वजह रही की हम असफल हुए और
      हमेशा सकारात्‍मक नजरिए से की ऐसा होने पर मुझे कितना फायदा हुआ तो
      आप  देखेगें की आपको हर परिस्थिति अपने पक्ष में लगेगी और आप अपने
      लक्ष्‍य को जरूर प्राप्‍त करेंगे। 

Tuesday, June 15, 2010

दिमाग रूपी आरी की धार तेज करो,मिलेगी मानसिक शांति

         एक आदमी भरी दोपहरी में आरी से पेड़ की डाल काट रहा था। पसीने से लथपथ उस आदमी को देखकर वहां से गुजरते हुए मैनें उससे पूंछा की भाई क्‍या कर रहे हो तो उसने झल्‍लाकर उत्‍तर दिया दिखाई नहीं दे रहा की मैं पेड़ काट रहा हूं। मैने उससे कहां की य‍दि तुम थोडा आराम कर लो और अपनी आरी की धार को तेज कर लो तो तुम्‍हारे काम में आसानी होगी और जल्‍दी भी हो जाएगा। उसको मेरी बात समझ नहीं आयी और वह फिर झल्‍लाया और अपने काम में लग गया।
        आज के इस आपाधापी के युग में ऐसा ही हो रहा है। लोग मशीन की तरह काम में लगे हैं और वे क्‍या कर रहे हैं। कैसे कर रहे हैं । काम के बारे में उनके पास चितंन का समय ही नहीं है । सुबह होते ही उनकी दिनचर्या मशीन की तरह शुरू हो जाती है और रात में सोने तक चलती है । इसके बाद भी शरीर तो रात को जैसे तैसे सो जाता है पर दिमाग की मशीन बंद ही नहीं होती। आज 95 प्रतिशत लोगों की यह समस्‍या है। वे जिस काम को करते है यदि वे उसके बारे में थोड़ा चिन्‍तन करें और अपने दिमाग रूपी आरी का धार को तेज कर लें तो वे जिस काम को कर रहे है उसमें समय भी कम लगेगा और उन्‍हें मानसिक शांति भी मिलेगी।
      होना यह चाहिए की हमें काम के साथ-साथ चितंन से अपने दिमाग रूपी आरी की धार को तेज करते रहना चाहिए। यदि हम प्रतिदिन चिंतन कर अपने काम के उन हर पहलूओं के बारे में विचार करेंगे तो हमें अपनी ग‍ल्तियां समझ आएगी और हम उनको सुधारनें का प्रयास करेंगे। जिससे हम कम समय में अधिक काम कर सकेंगे। हर समय जुझने का आशय यह नहीं होता है कि हम बहुत काम करते हैं हम बहुत व्‍यस्‍त हैं । हम दुनिया को धोखा दे सकते हैं पर अपने आप को नहीं । हमारे दिन भर किए काम का प‍रिणाम क्‍या निकला यह सबसे महत्‍वपूर्ण तथ्‍य होता है ।
   जिस काम को आप दिन भर से करने का प्रयास कर रहे हों। हो सकता है की यदि आप उसके तकनीकी पहलूओं पर ध्‍यान देते तो शायद वह 1 घंटे में भी हो सकता था। फिर ऐसा भी हो सकता है की वह काम जिसके लिए आप ने दिनभर खपा दिया उसके बारे में आपको बाद में पता लगा की यह व्‍यर्थ था। कई बातें हो सकती है । सबसे अच्‍छी बात यह होना चाहिए की हमें चिंतन करना चाहिए ।आप देखिए की आप यदि प्रतिदिन अपनी कार्यप्रणाली को लेकर चिंतन करते है तो आप की कार्यप्रणाली में जो परिवर्तन आएगा उसकी आप कल्‍पना नहीं कर सकते ।
    मैने अक्‍सर देखा है की कार्यालयों में हर उंचे पद पर बैठे अधिकारियों की आदत होती है की वे अपने से छोटे कर्मचारियों के कामों को भी खुद करने की इक्‍छा रखते है। वे अक्‍सर अपने औहदे का काम भूलकर छोटे- छोटे कामों में अपने आपको ज्‍यादा व्‍यस्‍त रखते है और पूरा दिन उसी में निकाल देते है । यह गलत है जो काम जिस व्‍यक्ति का उसे ही करना चाहिए। आपके मार्गदर्शन से ही काम हो जाना चाहिए ना की आप स्‍वयं फाइलों को निपटाने लगे।
        जब एक भृत्‍य को अवकाश चाहिए होता है तो वह एक पेज पूरा लिखकर लाता है अपनी समस्‍याओं के साथ। जब छोटे अधिकारी को अवकाश चाहिए होता है तो वह लगभग आधा पेज लिखता है। उससे बड़े अधिकारी को अवकाश चाहिए होता है तो वह चार लाइनें लिखता है और जब सबसे बड़े अधिकारी को छुट्टी चाहिए होती है तो वह केवल इशारा करता है और उसका अवकाश स्‍वीकृत हो जाता है ।
          इस बात का आशय यह है कि हम जैसे जैसे बड़े पद पर पहुंचते है वैसे वैसे ही हमारे बोलने और लिखने के शब्‍द कम होते जाते है । यदि हम इन बातों का व्‍यवहारिक जीवन में ध्‍यान रखकर काम करें तो हमें कई समस्‍याओं और मानसिक तनाव से मुक्ति मिल सकती है।




Monday, June 14, 2010

पढ़ने लिखाने से ज्‍यादा जरूरी है सुनना

                    हम अपने आपको और अपने  बच्‍चों को पढ़ना-लिखना सिखाते है,बोलना सिखाते है।यह सब स्‍कूलों में भी सिखाया जाता है। पर हमने कभी यह सोचा की सुनना किस स्‍कूल में सिखाया जाता होगा। हम अच्‍छा पढ़ा लिखा तो लेते है। हम चाहते है की बच्‍चा हमारा अच्‍छा वक्‍ता भी बने। पर हम उससे सुनने की आदत तो सिखाते ही नही है जो सबसे जरूरी होती है । सुनने वाला व्‍यक्ति ही सही निर्णय कर सकता है। हर परिस्थितियों को समझकर विवेक से काम कर सकता है। यह आदत हमारे भीतर होती ही नहीं जिससे हम सामने वाले की बात हो सुनना ही नहीं चाहते और बात शुरू होते ही हम जवाब देने में लग जाते हैं जो सबसे गलत होता है। क्‍योकि हम उसकी बात को समझते ही नहीं और अपनी आत्‍मकथा के साथ  जवाब देने लगते है जिसका प्रभाव अक्‍सर गलत हो जाता है।
                      मुझे एक बात याद आती है कि एक बार एक व्‍यक्ति की आंख से धुंधला दिखाई दे रहा था। वह आंखों के डॉक्‍टर के पास पहुंचा और डॉक्‍टर को अपनी समस्‍या बतायी । डॉक्‍टर ने उसका चश्‍मा उतारा और अपना चश्‍मा उसकी आंखों पर लगा दिया। डॉक्‍टर ने पूंछा कि बताओं अब कैसा दिखता है व्‍यक्ति ने देखा की डॉक्‍टर का चश्‍मा लगाने से उसकी आंखों के सामने और अंधेरा छा गया । उसने डॉक्‍टर से बोला की मुझे कुछ भी स्‍पष्‍ट नहीं दिखायी दे रहा है, इस बात को सुनकर डॉक्‍टर भड़क उठा कि क्‍या बात करते हो  यह चश्‍मा तो मैं इतने सालों से लगा रहा हूं और मुझे साफ दिखायी देता है और तुम कहते हो की तुम्‍हें कुछ दिखायी नहीं दे रहा यह कैसे हो सकता है।अब आप तो गये थे अपनी परेशानी का हल निकालने डॉक्‍टर के पास और डॉक्‍टर ने आपकी परेशानी और बढ़ा दी। ऐसे में यदि भविष्‍य में आपको कोई परेशानी होती है तो क्‍या आप फिर उस डॉक्‍टर के पास जाना पसंद करेंगे। मुझे लगता है कभी नहीं
                      जीवन में अक्‍सर ऐसा होता है कि हम दुसरों की बातों को कभी सुनना नहीं चाहते और यदि वह हमारे पास आता भी है तो हम उसपर अपने नजरिए का चश्‍मा लगाने की कोशिश करने लगते है। यह गलत है। जब हमारे बच्‍चे भी हमसे किसी समस्‍या पर चर्चा करना चाहते है तो हम उनके शब्‍दों को सुनने की बजाय जवाब देने और अपनी आत्‍मकथा उन पर लादने की कोशिश करते है । जिससे बच्‍चा जो मूल समस्‍या आपके सामने रखना चाहता है वह आपके नजरिए के कारण वे आपसे कह नहीं पाता । 
हमें अपने नजरिए को बदला चाहिए और बोलने से ज्‍यादा सुनने की आदत हमें डालना चाहिए । हम बात को सुनने और उसे समझे फिर उसका जवाब दे तो आप देखेंगे की उसके परिणाम सकारात्‍मक निकलेंगे।यह आदत हमें अपने बच्‍चों में अभी से डालना चाहिए की वे इस बात को समझे की जितना पढ़ना- लिखाना और बोलना जरूरी है उससे भी ज्‍यादा जरूरी है सुनना । बातों को सुनना और समझना।जिससे आगे आने वाले समय में वे हर  बात को समझे और उसके बाद जवाब दे ।फिर मुझे नहीं लगता की किसी माता पिता को यह कहना पड़े कि मेरा बेटा मेरी बातों को सुनना ही नहीं चाहता।








Tuesday, June 8, 2010

उतेजना प्रोफेशनल लाइफ में घातक

               जीवन में परिस्थितियां मनुष्‍य के अंदर द्वंद्व उत्‍पन्‍न करती रहती है कई बार मनुष्‍य दूसरों के कहने से उतेजित हो जाता है और कभी अपनी बातों के द्वारा दूसरों को  उतेजित कर देता है । प्रोफेशनल लाइफ में यह दोनों की तरह बाते घातक हो सकती है हमें हमेश इन बातों से बचना चाहिए । ऐसी परिस्थित में मनुष्‍य को स्‍वधर्म का से समस्‍याओं का सुलझाना चाहिए।        
             एक बार एक राजा भ्रमण पर निकला तो उन्‍होंने देखा की एक शेर गाय को भोजन बनाने के लिए आतुर है। गाय राजा की शरण में आ गयी, तो राजा ने शेर से कहां कि यह अब मेरे शरणागत है मैं तुम्‍हे इसे नहीं मारने दूंगा। इस पर शेर बोला हे राजन तुम यहां से चले जाओ ये गाय मेरा भोजन है और इसको मारना मेरा स्‍वधर्म है तुम इसके बीच में मत आओ। राजा बोला में क्षत्रिय राजा हूं मेरा स्‍वधर्म शरणागत की रक्षा करना है। अब तुम बताओं की जब किसी का स्‍वर्धम दूसरे के स्‍वर्धम से टकराता है तब क्‍या करना चाहिए ।इस बात पर राजा बोला की मूर्ख लोग आपस में लड़ने की चेष्‍टा करते है और बुद्धिमान लोग बीच को कोई रास्‍ता निकालते है। अब हमें कुछ इस तरह का रास्‍ता निकालना होगा। इस पर राजा बोला की तुम इस गाय को जाने दो और इसकी जगह तुम मुझे खा कर अपनी भूख शांत कर लो । शेर बोला हे राज शूरवीर हो तुम अतुल धन संपत्ति के स्‍वामी हो तुम क्‍यो इस तुच्‍छ प्राणी के लिए अपने जीवन को दांव पर लगा रहे हो । राजा ने बोला तुम्‍हार स्‍वधर्म है इस गाय को मार कर अपनी भूख का शांत करना और क्षत्रिय का धर्म है रक्षा करना यदि मै ने इस गाय की रक्षा ना की तो मेरे वंश का गौरव खत्‍म हो जाएगा और जिस वंश में राम ,लव कुश,हरीशचंद्र जैसे महापुरूष है वे मेरे इस जीवन को कायर कहेंगे तो ऐसे जीवन से मर जाना अच्‍छा है। राजा ने अपने शरीर को सिंह के समझ समर्पित कर दिया।        
              कहा भी जाता है की भय उससे भय खाता है जिसको भय से भय नहीं खाता । परीक्षा पूर्ण हुई और परीक्षार्थी उत्‍तीर्ण हुआ और परीक्षक हारा। स्‍वधर्म का पालन करने से बड़ी से बड़ी मुश्किलों से छुटकार मिल सकता है। 
मुझे यह बात इस लिए ध्‍यान में आयी क्‍योकि मेरे अजीज मित्र है एक दिन वे मुझे मिले और मुझे आपने एम्‍पलायर से परेशानी के बारे में मुझे बताने लगे । एम्‍पलायर हमेशा शक करता है उसको छोटी छोटी बातों को वे वजह बढ़ाचढ़ा कर करने की आदत है जिससे मेरी हमेशा उससे गिचड़ होती है। मुझे लगा मेरा मित्र वाकये परेशान है। मैं उसकी इस परेशानी को इस लिए भी अच्‍छे से समझ रहा था क्‍योकि अक्‍सर ऐसी परेशानी से हर कोई जुड़ा है जो अपने एम्‍पलायर से संतुष्‍ट नहीं होता है और इस तरह की मानसिक पीड़ा को झेलता रहा है। मुझे उसकी बात सुनकर एक बात याद आयी जो मैने कहीं पड़ी थी।

यदि मेरा मन इस बात को मान ले कि फलां व्‍यक्ति जो कह रहा है
वह सही है तो
सारी समस्‍याओं का सारे विवादों का वही अंत हो जाता है।


       इस बात से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है । मेरे मित्र को मैने यह बात बतायी और उससे कहां की इस का प्रयोग कर देखे।हालांकि वह काफी दिनों से मुझे मिला नहीं पर में उम्‍मीद करता हूं कि वह सलामत होगा।

Monday, June 7, 2010

फांसी की सजा खत्‍म करो

                    सरकार को एक प्रस्‍ताव लाना चाहिए और कानून व्‍यवस्‍था से फांसी की सजा के प्रावधान को बदल देना चाहिए। इस प्रस्‍ताव को पास करने में सरकार को कोई विरोध भी नहीं झेलना पड़ेगा। मुझे लगता है कि यह सबसे ज्‍यादा आम स्‍वीकृति से पास होने वाला प्रस्‍ताव होगा। इस प्रस्‍ताव का एक फायदा यह भी होगा की न्‍याय की आशा लगाये लोगों का न्‍याय पालिका से विश्‍वास नहीं उठेगा। माननीय न्‍यायालयों की इस ना मिलने वाली फांसी की सजा देने से मुक्ति मिल जाएगी। अफजल और कसाब जैसे हाल के ही उदाहरण है जिन्‍हें फांसी की सजा मिलने के बाद भी आज तक यह फैसला नहीं हो पाया की फांसी कब होगी। जिनके परिवार के लोगों को इन्‍होंने निशाना बनाया वे बर्षो तक इस बात का इंतजार ही करते रहेंगे की कब वह दिन आएगा और इन दरिंदों को सूली पर लटकाया जाएगा। पर मुझे तो यह लगाता है कि जो इंतजार कर रहे है वे इस दुनिया से विदा हो जाएगें पर ये दरिंदे यहां जीवित रहेगे और देश के लोगों के पैसों से ऐश करते रहेंगे। राजनेताओं के दफ्तरों में इनकी फाइलें धूल खाती रहेंगी और हम आशा करते रहेंगे की हमारे साथ कभी तो न्‍याय होगा।
       भारत सहनशीलों का देश है । यहां के लोग धैयवान है। इनका सब कुछ लूट भी जाय तो ये उफ नही कर सकते । इसका सबसे बड़ा उदाहरण आज 25 साल बाद भोपाल गैस कांड के फैसले के बाद पीडि़त लोगों चिल्‍ला चिल्‍ला कर कह रहें है।  हम केवल जिन्‍दा है पर हमारी आत्‍मा मर चुकी है।हमे मारो काटो हम कुछ नहीं कहेंगे। हमें मारने वालों को तुम छोड़ तो तो भी हम कुछ नहीं कहेंगे क्‍योकि हम जिन्‍दा है । हम कायर नहीं धैयवान है जिन्‍होंने  हमे हजार बार लूटा है हमारी उन पर आज भी आस्‍था है और हम उन्‍हीं के नेतृत्‍व में लुटते रहेंगे। हम सहनशील है हमारी आखें चली गई तो क्‍या,हमारे बच्‍चे हमेशा के लिए विकलांग हो गये तो क्‍या ,मॉ बाप का साया हमारे से उठ क्‍या तो क्‍या पर हम सहनशील है। उस न्‍याय पालिका में हमे विश्‍वास है जिसमे एक छोटे से न्‍याय के लिए भी 20 साल लग जाते है आरोपी और फरयादी दोनों ही चल बसते है । फिर तो यह 16 हजार लोगों की मौत का मामला है इसमें 200 साल तो लग ही जाएंगे। पर हमारे बच्‍चे उसमें यकिन करते है की देर से सही पर फैसला होगा। आज 25 साल बाद जो फैसला हुआ उससे हम खुश नहीं है पर हमें किसी से शिकवा नहीं है हम आगें 25 साल और लड़ाई लड़ेगे।लड़ो लड़ाई आरोपियों में एक तो मर चुका है बाकी आधे से ज्‍यादा के पैर कब्र में लटके हुए है। अगले 25 साल बाद जब फैसला होगा तब हम उनकी कब्र पर फूल चढ़ाने के लिए जाएगे ।भारत संस्‍कारवानों का देश है मरे आदमियों की आत्‍माओं को दुखी नहीं करता है। जब फूल ही चढ़ाने है तो इस तरह की लड़ाई शुरू ही क्‍यो हुई।16 हजार लोगों की सार्वजनिक मौत और 5 लाख से ज्‍यादा घायलों की श्रेणी में आये लोगों को न्‍याय दिलाने के उन्‍हें 25 साल इंतजार करना पड़ा तब भी सही न्‍याय नहीं मिला । और कितना इंतजार करना होगा।
              


        

Sunday, June 6, 2010

जाति के नाम पर सरकार का छलावा

         आज जाति पर आधारित जनगणना का मुद्दा गरमाया हुआ है।जगह-जगह संगोष्‍ठी हो रहीं हैं। संसद में बहस हो रही है,पार्टी के नेता मीडिया के सामने उछल-उछल के जनता के प्रति अपनी झूठी सदभावना दिखा रहे है। नेता और जनता मंहगाई का मुद्दा भूलकर जाति के मुद्दे पर मंथन में लग गये है। सरकारें कभी आम जनता से यह पूंछती है की वे तुअर की दाल की कीमत 50 रूपये से 100 रूपये करने जा रही है,इस मुददे पर जनता की राय जरूरी है। पेट्रोल,बिजली की कीमत बढ़ा रही है इस पर आम जनता की राय लेने की जरूरत है । कभी नहीं होता सरकार अपना बजट देखती है और कीमतों को बढ़ाती है। तब उसे किसी आम आदमी से राय लेने की जरूरत नहीं लगती ।आज जातिआधार पर जनगणना में सरकार के बजट पर कोई असर नहीं पढ़ने वाला सो इस बेरूखे मुद्दा को जनता के बीच उछाला जा रहा है। राजनेताओं को कितना आसान होता है आम जनता को बेवकूफ बनाना। मंहगाई कितनी भी बढ़ जाए देश में संगोष्‍ठी नहीं होती।संसद में थोडी बहस के बाद 1-2 रूपये कम कर बढ़ी मंहगाई को कम कर दिया जाता है। लोग खुश हो जाते है कि चलो 2 रूपये कम हुए ।
       जाति के आधार पर जनगणना का मुद्दा केवल राजनीति से प्रेरित है। सरकार जनगणना कराती है हर परिवार के 50 प्रकार की जानकारी जनगणना के प्रपत्र में भरी जा रही है। सरकार उसमें जानकारी के साथ लोगों की जाति भरवा रही है ।सरकार जनगणना विभाग से जातियों की जानकारी अलग से भी ले सकती है। इसमें आम लोगों के पास मुद्दा उठाने से क्‍या फायदा। मुझे नहीं लगता की सिर्फ नेताओं के अलावा किसी को भी जाति आधारित जनगणना में कोई रूझान होगा। आम आदमी को जीवन की मूलभूत चीजों की जरूर है वह‍ किसी भी आधारित जनगणना से मिले। आम आदमी  मंहगाई,पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों पर ध्‍यान ना दे । लोगों को ध्‍यान बटाने के लिए राजनीतिक चालबाजी है। सरकार हमेशा कुछ ना कुछ मुद्दा उठाकर लोगों का ध्‍यान उस मुद्दे की ओर खीचने के लिए षड़यंत्र करती रहती है जिससे सरकार को आम आदमी घेरने का प्रयास ना करे।
      आज देश नक्‍सली समस्‍या पर संगोष्‍ठी नहीं होती। अखबार इसके लिए कोई सर्वेक्षण नहीं करता। देश में बढ़ते भ्रष्‍टाचार पर संगोष्‍ठी नहीं की जाती,क्‍योकि इसमें राजनेताओं का हित नहीं होता है। जाति आधारित जनगणना पर संगोष्‍ठी कराने इस मुद्दे को गरमाने में सरकार का भला है।आम लोगा का मूल समस्‍याओं से ध्‍यान हट जाए सरकार की मंशा पूरी हो जाए। मैं तो यह कहता हूं कि  जनगणना का काम ईमानदारी से सरकार करवा ले,चाहे जाति के आधार पर या बिना जाति के आधार पर इससे आम आदमी को कोई फर्क नहीं पड़ना। यदि ये राजनेता हकीकत में देश का भला चाहते है तो इस जनसंख्‍या पर नियत्रंण की कारगर योजना बनाए।देश में जो लोग भुखमरी से मर रहे है उनकी जिंदगी की योजना बनाए। नक्‍सलियों से देश में बेगुनाह जनता मारी जा रही है उसकी योजना बनाए। संसद में बैठकर इन मुददों पर बहस करें तो कुछ देश की जनता का भला हो सकता है। जाति के आधार पर आकड़े होने या ना होने  से कुछ हासिल नहीं होगा । किसी का भला नहीं होना जब तक राजनैतिक इक्‍छाशक्ति इस देश के विकास करने की ना हो ।
इस तरह के मुददो को उठाकर ये सरकारे आम आदमी को छलने के अलावा कोई काम नहीं कर सकती। 

Saturday, June 5, 2010

भविष्‍य होता नहीं बनता है हमारे विचारों से

भविष्‍य क्‍या है मैं इस प्रश्‍न के उत्‍तर के लिए काफी भटकता रहां और अंत में मुझे पता चला की भविष्‍य कुछ नहीं होता। भविष्‍य  लेकर हम अपना और अपने बच्‍चों का वर्तमान खत्‍म कर रहे है। वास्‍तव में भविष्‍य के नाम पर सुखद कल्‍पनाएं होती है जो हम कर सकते है । कल्‍पानाएं ही जीवन का आधार है, नक्‍सा  है । जिन पर हमारे जीवन की इमारत खड़ी है । भविष्‍य में केवल इतना होता है कि हम अपने जीवन का एक नक्‍सा बना लेते है और उस नक्‍से के आधार पर वर्तमान में हमें अपने क्रिया कलापों को अपने विचारों को  इस तरह ढालना होता है की जो जीवन की दीवारें हम बना रहे है वे भविष्‍य की कल्‍पना के आधार पर बने नक्‍से से  मेल खाती हो। इससे यह बात तय होती है कि  जो कुछ भी होता है वह वर्तमान में ही होता है । भविष्‍य में करने के लिए कुछ नहीं होता। पर अक्‍सर होता यह है कि हम हमेशा भविष्‍य को लेकर चिंतित रहते है अपने अपने परिवार के बच्‍चों के भविष्‍य की चिंता में माता पिता सूख कर कांटा हो जाते है । फिर भी वे भविष्‍य सवांरनें की गारंटी नहीं ले पाते। मुझे इस बात में सबसे ज्‍यादा आश्चर्य होता है कि जिस थाली को हमने खाया नहीं हम बिना खाए उस थाली के बारे में कमेंट कैसे कर सकते है । थाली का स्‍वाद अच्‍छा है या खराब यह तो हमें चखने पर ही पता चल पाएगा।
मेरे एक मित्र है वे हमेश अपने बच्‍चों के भविष्‍य के लिए परेशान घूमते रहते है।उनका बच्‍चा 12 वीं की परीक्षा में बैठा वे मुझे मिले तो बडे़ हैरान थे। मैने उनसे पूंछा की भई क्‍या बात है परेशान लग रहे हो तो वे बोले की बच्‍चे ने परीक्षा दी है । रिजल्‍ट क्‍या आता है इस बात को लेकर परेशान हूं । यदि अच्‍छे अंक नहीं आए तो बच्‍चे का क्‍या होगा। हाल में रिजल्‍ट आया उनका बच्‍चा अच्‍छे अंको से पास हुआ मैने उन्‍हें बधाई देने उनके घर पंहुचा तो वे पहले से ज्‍यादा परेशान मिले । मैने पूंछा भई अब तो रिजल्‍ट आ गया बच्‍चा अच्‍छे अंकों से पास होगया अब क्‍यों परेशान हो तो उनका कहना था कि भई अच्‍छे अंक से पास हो गया इसलिए और चिंता बढ़ गई अब आगे क्‍या पढ़ाई कराना है जिसमें भविष्‍य हो इसको लेकर परेशान हूं।
लोग वेबजह ही परेशान है जिस भविष्‍य की इतनी ज्‍यादा चिंता करते है वह होता ही नहीं यह कोई समझना ही नहीं चाहता। केवल  होता है वर्तमान ।हम जो भी करते हैं उसका हमे परिणाम मिलता है,होसकता है कि कुछ का परिणाम देर वे  मिले कुछ का तुरंत,पर सब कुछ वर्तमान में होता है। हम स्‍वयं तो वर्तमान में जीना नहीं चाहते क्‍योकि हमें हकीकत से डर ल गता है। इसलिए अपनी अकर्मण्‍डता के चलते हम अपने परिवार और अपने बच्‍चों को भविष्‍य की कोरी कल्‍पनाओं को  हकीकत बताकर उन्‍हें इस बात के लिए तैयार करते है की हम भविष्‍य को लेकर चिंतित है।वर्तमान में तुम जो भी करों वह हम नहीं देख रहे पर तुम्‍हारे भविष्‍य के प्रति सचेत है । यह क्‍या बात हुई मुझे समझ नहीं आती । हमें भविष्‍य में नहीं वर्तमान में ही जीना सिखना होगा और अपने परिवार को भी वर्तमान में जीने की आदत डालनी होगी। वर्तमान अच्‍छा होगा यथार्थ  के धरातल पर होगा तो भविष्‍य अपने आप ही अच्‍छा हो जाएगा इसकी गारंटी है।
              मेरे एक मित्र जो मेरे साथ काम करते है वे हमेशा डर डर कर काम करते है।मैं उससे अक्‍सर पूंछता हूं कि जब तुम हमेशा सही होते हो तो डर कर काम क्‍यो करते हो तो उसका एक सीधा जबाव होता है की तुम्‍हारे पर तो कई काम है पर मेरे पास विकल्‍प नहीं । यदि मैने जबाव सवाल किया तो मेरी नौकरी चली जाए या ट्रांसर्फर हो गया तो मेरा और परिवार  भविष्‍य क्‍या होगा। इस तरह जीवन से डरना कहां का सही है भविष्‍य कभी नहीं होता। भविष्‍य हमे बनाना होता है और वह बनता है अपने विचारों से हमारे वर्तमान के क्रिया कलापों से यह बात कब लोगों के समझ आएगी और वे वर्तमान में जीना सीखेंगे।










दिमाग से कचड़ा अलग करो

              हम जब किसी से मिलते है तो हमें उससे उस तरह मिलना चाहिए जैसे की वह हमें आज ही मिला हो। उससे हमारी पहली मुलाकात हो । इस तरह से हम सामने वाले पर अपने व्‍यक्तिव की एक ऐसी छाप छोड़ सकते है जिससे वह कभी भूल ही नहीं सकता और वह हमेशा आपको याद रख सकता है। होता यह है कि जब भी हम किसी से बात करने या मिलने के लिए जाते है तो हम उसके दसों साल पुराना इतिहास  के आंकड़े अपने दिमाग में जमा कर ले जाते  है।जैसे ही उस व्‍‍यक्ति से बात करना शुरू होती है तो दिमाग में जमा पुराने आंकड़े हमारे विचारों पर प्रभाव डालना शुरू कर देते है जिससे हमारे व्‍यवहार में बदलाव आ जाता है। हम सहज नहीं हो पाते और कई बार वह व्‍यक्ति की सही बात भी हमे भ्रामक लगने लगती है। यह बात गलत है। होना यह चाहिए कि जब भी हम किसी से मिलने पहुंचे तो उसके पुराने इतिहास का अपने दिमाग से निकाल कर रख दें। हम यह सोचें कि इससे हमारी पहली मुलाकात है और जब किसी से पहली मुलाकात होती है तो यह तय है कि हम उसके प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं पाल सकते । हमारे व्‍यवहार में अपना पन होता है और ताजगी होती है जिससे सामने वाला प्रभा‍वित हुए बिना नहीं रह सकता । यह कहलाती है वालि शक्ति ,इसका हमे अपने दैनिक जीवन में उपयोग करना चाहिए।
                रामायण में वालि को मारने के लिए भगवान श्री राम को भी पेड़ का सहारा लेना पड़ा था । स्‍वयं महाबली भगवान को भी छिप कर वालि का वध करना पड़ा। वालि को वरदान था कि जो भी  व्‍यक्ति उस के सामने आयेगा उसकी आधी शाक्ति उस में चली जाएगी।  भगवान जानते थे कि वालि एक अच्‍छा वानरराज है और यदि इससे मेरी बात हो गयी तो में इसके बातों से मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाउंगा और इसे नहीं मार पाउंगा,इसलिए उन्‍हें भी छिप कर बार करना पड़ा। जब स्‍वयं भगवान अच्‍छे विचार बालों से प्रभावित हो जाते है तो इंसान की क्‍या बिसात।बस उसमें पूर्वाग्रह ना हो।
           मुझे इस बात एहसास आज इतनी गंभीरता से हुआ कि मैं  बिना लिखे रह नहीं सका। मेरे एक बहुत करीबी  है उनकी सबसे अच्‍छी बात यह है कि इस आपाधापी के दौर में वे जैसे 15 साल पहले थे वैसे ही आज है। उनके साथ काम करने वाले लोगों आज पता नहीं कहॉं से कहॉं पहुंच गए ,पर उनके जीवन के प्रति तटस्‍थ भाव ने और अपने काम के प्रति ईमानदारी ने उन्‍हें ज्‍यों का त्‍यों रखा। मैने देखा की उन्‍होंने कभी किसी के प्रति पूर्वाग्रह नहीं पाला । हमेशा सभी के साथ एक से सबंध। आज जब में उनके पास बैठा था तो वे  किसी से बात कर रहें थे तो उनके व्‍यवहार में उस व्‍‍यक्ति के प्रति एक अजीब सा रूखापन था । फोन लगाते ही उनके चहरे पर एक अजीब की कठोरता आ गई। फोन चालू होते ही जो बात करने का लहजा था वह बड़ा बेरूखा था । मुझे उनके इस व्‍यवहार पर आर्श्चय हुआ । पर मुझे लगा कि आज इनके दिमाग पर भी पुराने पर्चो ने  कब्‍जा जमा लिया है और उनके व्‍यवहार को बदल दिया।
         दैनिक जीवन में हमेशा ऐसा ही होता है कि हम अपने दिमाग में इतना कचड़ा जमा कर लेते हैं कि वह  कचड़ा हमारे व्‍यवहार को बदल देता है । यदि हम अपने दिमाग से यह कचड़ा अलग कर दें तो हम उस बच्‍चे की तरह हो जाएगें जो यह कभी नहीं सोचता की फलां व्‍यक्ति अच्‍छा है या बुरा। वह हर किसी को देख कर मुसकरा देता है और सबसे अच्‍छी बात यह होती है कि उसकी मुसकराहट को देखकर बुरा व्‍यक्ति भी हसंने लगा है और उससे प्‍यार करने लगता है।










Wednesday, May 26, 2010

बचपन में खो जाएं

व्‍यक्ति अपने विचारों से अपने आप को लगातार कैद करता है। वह इतनी सीमा रेखाएं स्‍वत: ही बना लेता है। एक समय ऐसा आता है जब वह अपनी विचारों के द्वारा खींचे गए इस जाल में इतना उलझ जाता है की वह चाह कर भी नहीं निकल पाता । उसे हर ओर बंधन ही नजर आते है ।मैने अक्‍सर देखा है कि हम एक दुसरे के प्रति अपने विचारों के द्वारा इतनी दूरियां बना लेते है की जब कभी सहज ही हमारा उसके पास जाना भी होता है तो हम विचारों द्वारा खींची गई रेखाओं को लांघ नहीं पाते । यह सबसे विकराल समस्‍या है हमारे जीवन की। एक छोटा बच्‍चा जिसके पास किसी भी तरह के विचार नहीं होते पर जो भी उसे प्‍यार से बुलाए चला जाता है ना उसे कोई भय होता है ना कोई सीमा। वह हर किसी को प्रेम के दृष्टि कोंण से देखता है । यह बात हमें उस बचपन से सीखना चाहिए।
मेरा बालक तेजस्‍व अभी दो साल का है। मै उसकी शरारतें देखता हूं तो मेरे अंदर एक अजीब सा भाव पैदा होता है मैं इस बात को सोचने पर मजबूर हो जाता हूं की यह आज इस भोलापन आगें चल कर इस आपाधापी के युग में मैं उसका बचपन कैसे बचा संकू । मेरा मन भावुक हो उठता है जब मैं उसकी छोटी छोटी शरारतें जिन्‍हें वह अंजाने में करता है पर होती बहुत सुंदर है।ये छोटी छोटी शरारतें समय के साथ अपनी सुंदरता खो देती है ।मैं सोचता हू कि कैसे उसकी ये छोटी छोटी शरारतें हमेश सुंदर बनी रहें। इस समय उसका हर किसी से मिलना,मुस्‍कराना सभी का उसको प्‍यार करना देखकर मेरी आखों  भर जाती है । मै फिर भी सोचता हूं कि क्‍या इसका ऐसे ही हर किसी से मिलना,मुस्‍कराना और सभी का प्‍यार करना हमेश बरकरार रख सकूंगा।
मुझे लगता है कि बचपन कभी खत्‍म नहीं होना चा‍हिए। बचपन के खत्‍म होती ही सारी समस्‍याएं शुरू हो जाती है हमें बहुत से काम इसी बचपन की तरह अंजाने में करना चाहिए जिसमें कोई छल नहीं होता।किसी के प्रति दुरभावन नहीं होता । कितना अच्‍छा हो कि हम सभी बचपन में चले जाए और उसी निश्‍छलता के साथ अपने कामों को अंजाम दे तो ये दुनिया कितनी सुंदर होजाए। ये आपसी लड़ाई झगड़े,एक दुसरे के प्रति  धृर्णा खत्‍म हो जाए और यह ईश्‍वर की रचना सार्थक हो जाए।
मुझे पता है कि यह संभव करना आसान नहीं है पर एक विचार को अपने मन में हम स्‍थापित तो कर सकते है।

Tuesday, May 25, 2010

आत्‍मा के कक्षों में विजय से मिलेगी शांति और दिव्‍य दृष्टि

सबसे बड़ा महायुद्ध हमारे अंदर आत्‍मा के कक्षों में चलता है । हम आत्‍मा के कक्षों में चल रहे इस महायुद्ध को जीत ले,तो हमें जो मिलेगा वह हमें बड़े से बड़े युद्ध में विजय प्राप्‍त करने के बाद भी नहीं मिल सकता।हम अपनी आत्‍मा के कक्षों में हजारों लोगों  एवं विचारों को स्‍थाई निवासी बनाकर बिठा लेने है।और उनसे लगातार लड़ाई करते है ।रोज सैकड़ों की तादात में लोगों और विचार  हमारी  आत्‍म के कमरों में निवास बना रहें है और  हमारी शांति को खत्‍म कर दिया है। 
                होना यह चाहिए की हमें रोजाना शाम को अपनी आत्‍मा के कक्षों में झांक कर देखना चाहिए कि कहॉं किस तरह के लोग और विचार हमारी आत्‍मा में रहने आ गए है । हमें गंदे लोगों और गलत विचारों को तुरंत आत्‍मा के कक्षों से बाहर कर उनकी जगह तुरंत अच्‍छे लोगों एवं विचारों को स्‍थापित करना चाहिए। यदि हम इस आत्‍मा के युद्ध पर विजय पा लेते है तो हमें मिलगी शांति एक दिव्‍य शांति । हमें एक ऐसी दृष्टि मिलेगी जिससे हम दूसरों को प्‍यार करना सिखेगें।जब हम दुसरो से प्‍यार करना सीख जाएगें तो हमारी सारी समस्‍याएं हल हो जाए
मेरा एक अनुभव है कि आदमी जब बड़े ओहदे पर पंहुचता है तो उसके साथ कुछ इस तरह की समस्‍याएं साथ आ जाती है। मेरे एक मित्र है जो की बहुत बड़े पद पर पहुंच गये है। एक दिन उनसे मुलाकात हुई तो वे बडे़ परेशान  थे मैने पूंछा भाई क्‍या बात है अब उदासी कैसी,इतने बड़े पद पर काम कर रहें हो तुम्‍हारे नीचे पचासों लोग काम कर रहे है फिर क्‍यों परेशान हो। उसने बताया की रात को मुझे नींद नहीं आती । मेरा मस्तिक सोता नहीं है,हमेश एक अंजान भय बना रहा है। 
मैं उसका नेचर जानता था ।वह शकी किस्‍म का इंसान है। उसकी बात समझ गया क्‍योंकि अक्‍सर ऐसा होता है कि लोग अपने साथ काम करने वालों को लेकर इतनी ज्‍यादा भ्रांतियॉं पाल लेते है कि वे दिन रात उन्‍हें ही सुलझाते रहते है । फलां आदमी ऐसा है उसने ऐसा कर दिया जरूर उसका को स्‍वार्थ है। मैने इसे डांटा इसके ऊपर संपर्क है मेरी शिकायत ना हो जाए। मेरी नौकरी ना चली जाए।आज इसको सबक सिखना है। ये मेरे विरोधी के पास क्‍यो बैठ रहा है । इस तहर की कई बाते जहन मे होती है । इससे होता कुछ नहीं है क्‍योकि हम तो केवल एक निश्‍चित अवधारण के तरह लोगों के प्रति दृष्टिकोंण बनाते है और उसी को लेकर सोचते है जिससे ऐसा माहौल पैदा होता है।
होना यह चाहिए की कोई कुछ भी करें पर हमे अपने काम को सही ठंग से अंजाम देना चाहिए और छोटी छोटी गलतियों को यदि वे नुकसान नहीं पहुंचाती तो नजरअंदाज करना चाहिए । हमें अपने ओहदे के हिसाब से अपने मानसिक स्‍तर को बढ़ना चाहिए। इस सब में सबसे बड़ी बात यह होती है कि आप अगर अपना काम ईमानदारी के साथ करते हो तो कोइ आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आप अपने ऊपर विश्‍वास पैदा करलेते हो तो इस तरह की कई समस्‍याओं से छुटकारा मिल सकता है

Monday, May 24, 2010

जीवन का एक नया तटस्‍थ भाव

खुशी और गम के भाव से बने इस जीवन में मुझे लगता है कि हर व्‍यक्ति के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब वह ना तो खुशी व्‍यक्‍त कर पाता है, ना ही गम । यह सबसे क‍ठीन परिस्थिति होती है।जब अपने भाव को वह चाह कर भी व्‍यक्‍त नहीं कर पाता । वह समझ ही नहीं पाता की वह खुशी व्‍यक्‍त करें या गम। 
इसी तहर का दौर शायद मेरे जीवन में एक चक्र के बाद आता है। जब में कुछ मिलने की खुशी और खोने का गम व्‍यक्‍त नहीं कर पाता ।यह तटस्‍थ भाव मुझे एक अजीब सी बैचेनी देता है । मैं इस बात के  को सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूं कि आखिर इतना संघर्ष क्‍यों। परिणाम जब विपरीत आता है तो क्‍यों किया जाए संर्धष।
आज सुबह मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ मुझे क‍हीं जाकर पता चला कि मुझे कुछ मिलने वाला है जिसकी मैं लगभग दो माह से जानने की उत्‍सुकता लिए रोज एक नये सपने के साथ अपने काम को अंजाम दे रहा था।
वैसे तो उस मिलने वाले विषय का मै दो साल से इंतजार कर रहा था पर हाल ही में तय हुआ की इस बार आपको वह मिल सकता है,जिसका आपको इंतजार है। आज सुबह जब मैं वहां पहुंचा तो मुझे जानकारी लगी की आपकी उत्‍सुकता को विराम लग गया है आपका नाम के आगे आपको मिलने वाले विषय की जानकारी अंकित है। मैं लपककर  पंहुचा और देखा तो मेरे अंदर अपने भावों को व्‍यक्‍त करने के तटस्‍थ भाव आ गया। मैं तय नहीं कर सका की क्‍या प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करूं।
             कभी कभी ऐसा होता है कि आप अपना काम बहुत ईमानदारी के साथ करते हैं परंतु आपके उस काम की सही कीमत आपको नहीं मिल पाती। इसका कारण कई दफां यह हो जाता है कि जिनके साथ आप काम करते हो वे आपके काम को समझना नहीं चाहते और आपके प्रति एक निश्चित दृष्टि कोंण बना लेते है जिससे आपके अच्‍छे एवं बुरे सारे काम एक ही मानक से तय होते है जिससे आपकी मेहनत को सही परिणाम नहीं मिल पाता।
               मुझे एक बात और इस मसले में और समझ में आती है कि आपकी सफलता आपके व्‍यवहार को लेकर लोगों को आपके प्रति एक भ्रंति  पैदा हो जाती है और वे आपको नकारने के लिए कोई ना कोई उपाय करने लगते है।
              परिस्थिती आपके विपरीत हो तब भी आपको काम तो करना ही होता है। मैने स्‍वयं आत्‍मचिंतन किया और तब मुझे एहसास हुआ कि  जीवन में अच्‍छा और बुरा कुछ नहीं होता यह सब मनोभाव है । हम स्‍वयं पैदा कर परेशान हो रहे है। आप अपने काम को ईमानदारी और धैर्य के साथ करते रहो। परिणाम हो सकता है कि तुरंत ना मिले पर ऐसा कभी नहीं होता है कि ईमानदारी से किया गया काम को परिणाम कभी ना मिले। कर्म के सिद्धांत में मनोदशा  को नहीं जोड़ना चाहिए । आपका लक्ष्‍य निश्वित होना चहिए और उसके प्राथमिक स्‍टेजों पर जो भी परिणाम आते है उनसे अपने आपको हत्‍तोसाहित नहीं करना चाहिए । परिणाम आज आपके अनुकूल नहीं है कारण कुछ भी हो पर कल आएगा,  आपको अपनी इक्‍छा के अनुसार परिणाम मिलेगा। इस सब की शर्त है की आपको धैय का साथ नहीं छोड़ना होगा। होता यह है कि अक्‍सर एकाध परिणाम विपरीत आने पर हम इस कदर अवसाद में चल जाते है जैसे सब कुछ खत्‍म को गया।
            मैने यह इस लिए लिखा, क्‍योंकि मेरे मन में सवाल जबाव का इतना दौर चल रहा था कि इससे अच्‍छा व्‍यक्‍त करने का मुझे कोई तरीका नहीं मिला।








Sunday, May 23, 2010

निर्णय के लिए सापेक्ष दृष्टि जरूरी

             रोशनी अच्‍छी होती है और अंधकार खराब,यह सहज ही नहीं कहा जा सकता। इसके लिए सापेक्ष दृष्टि की आवश्‍यकता होती है। अपने व्‍यक्तिव का विकास और आत्‍मचिंतन तो अंधेरे में ही हो सकता है,तो अंधकार खराब कैसे हो सकता है। यह बात जीवन के कई पक्षों में समझने की होती है क्‍योंकि हम किसी भी विषय के बारे में बिना अपनी सापेक्ष दृष्टि के निर्णय देते है कि फलां खराब है और फलां अच्‍छा।हमेश उदृदीपन और प्रतिक्रिया के बीच खाली स्‍थान होता है हमे अपनी प्रतिक्रिया देने के पहले उस खाली स्‍थान समझना चाहिए और समझ कर खाली स्‍थान को भरना चाहिए जिससे आपकी प्रतिक्रिया सही हो। होता यह है कि हम बिना सोचे समझे अपनी प्रतिक्रियाएं दे देते है । किसी को कुछ भी जबाव दे देते है जिसके परिणाम गंभीर भी हो जाते है। 
              मेरा एक मित्र है जो मेरे साथ काम करता है। उसकी सबसे अच्‍छी आदत है कि वह बेहद जिज्ञासु है। किसी भी विषय पर उससे बात करने पर उसके अंदर जिज्ञासा पैदा होती है। परंतु वह अपनी बात को सही् ढंग से प्रस्‍तुत नहीं कर पाता।उसका कारण मुझे समझ में आता है कि वह उदृदीपन और प्रतिक्रिया के बीच के  खाली स्‍थान को  अपनी सोच में नहीं रखता और बात का बिना सोचे समझे जबाव दे देता है जो कि अक्‍सर उसके लिए परेशानी खड़ी करता है। परिणाम ये निकलता है कि वह किसी के बारे में भी एक निश्‍चित दृष्टि बना लेता है और उसी चश्‍में को लगाकर उसे देखता है जिससे यदि कोई उसके फायदें की बात भी करें तो उसे उसके प्रति इतना पूर्वाग्रह होता है कि उसे उसकी सही बात भी गलत ही लगती है। यह केवल मेरे मित्र की समस्‍या नहीं है यह हमेशा लगभग हर व्‍यम्ति के सा‍थ होता है।

Friday, May 21, 2010

विवेक जीवन की सुंदरता देखने का चश्‍मा है

मुझे लगता है कि जीवन परीक्षा है और समस्‍याएं इसके प्रश्‍न है। हर प्रश्‍न का एक हल होता है तो तय होता है। और उसके विकल्‍प होते। उसी तहर जीवन में आने वाली हर समस्‍या का हल तय है ।जब जीवन में समस्‍या आती है तो विकल्‍प के रूप में उसका हल हमारे पास होता है उस समय हमें वि‍वेक और धैय से सही उत्‍तर पर क्लिक करना होता है । यदि हम जीवन में आने वाली समस्‍याओं को इस रूप में देखे और विवेक से उसका हल करें तो हमारी सारी समस्‍याएं चुटकियों में हल हो जाए। अक्‍सर होता यह है की हम समस्‍याओं को देखकर घबरा जाते है और उनका सही हल होते हुए भी हम घबराहट में गलत कर बैठते है जिससे समस्‍याएं बढ़ जाती है और जीवन हमे कठीन लगने लगता है। जीवन सुंदर है और हमारी समझ इस सुन्‍दरता को देखने का चश्‍मा है।

जोखिम भरा स्‍वांत:सुखाय

मैं पिछले 15 साल से देश के प्रतिष्ठित अखबार दैनिक भास्‍कर के सागर संस्‍करण में फोटो जर्नलिस्‍ट के रूप में जुड़ा हूं। बहुत छोटी उम्र से फोटो पत्रकारिता से जुड़ा हुआ हूं।
इस दौरान मुझे कई खट़टे-मीठे अनुभव मिले। इन अनुभवों ने मेरी दिशा बदल दी। बहुत सी आदतें छोड़ी दी तो कई सीखें मिली। चूंकि फोटो पत्रकारिता सीधे जनता से जुडी है इसलिए जोखिमभरी भी है और स्‍वांत:सुखाय भी है। कभी-कभी यह भी महसूस हुआ कि कई मौकों पर मैं संवेदनहीन भी हो गया हूं। लेकिन ऐसा नहीं इस संवेदनहीनता में ही लोगों में संवेदनशीलता की भावना जागृत करने की कोशिश भी नजर आई।
ऐसे कई किस्‍से मेरे साथ हुए जो समय-समय पर आपके साथ बांटूंगा। आपकी प्रतिक्रियाएं, सुझाव मुझे नई दिशा देंगे। जय हिंद ।